शरद पूर्णिमा पर खीर खाने से दूर होते है रोग, जानिए वैज्ञानिक कारण

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पूरे सालभर की पूर्णिमा में सबसे खास महत्व आश्विन मास में आने वाली शरद पूर्णिमा का होता है।  सनातन संस्कृति में इस दिन व्रत रखना और खीर बनाने की विशेष मान्यताएं है। इस दिन जब शाम को चंद्रमा का उदय होता है तो यह अपनी पूर्ण रोशनी के साथ पूरे 16 कलाओं से भी परिपूर्ण होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस शरद पूर्णिमा की रात्रि को चंद्रमा अपनी रोशनी से अमृत बरसाता है। इस रात्रि को खीर बनाकर चन्द्रमा की रोशनी आसमान के नीचे रातभर रखा जाता है जिसे अगले दिन सुबह प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।

क्यों बनाई जाती है खीर

शरद पूर्णिमा का चांद अपनी रोशनी में अमृत का वरदान लिए आता है इस दिन चंद्रमा की रोशनी में खड़े रहने (रोशनी स्नान) से भी आरोग्य प्रदान होता है। शरद ऋतु का प्रारम्भ भी शरद पूर्णिमा से ही होता है इस दिन से सर्दी की शुरुआत हो जाती है और ठंडक महसूस होने लगती है। कई जगह शरद पूर्णिमा को उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है और इस दिन खीर को बनाया जाता है। धार्मिक परम्पराओं के अनुसार भी इस दिन खीर बनाने का विशेष महत्व होता है। इस पूर्णिमा की रात्रि को खुले आसमान के नीचे खीर बनाकर झीने कपड़े से ढककर रख दे। ध्यान रखे कि चांद की रोशनी खीर में पड़ती रहे फिर इसे अगले दिन ग्रहण करें तो यह शरीर के कई रोगों को दूर करती है और आरोग्य का वरदान प्राप्त होता है।

श्वास, आंखों, चमड़ी संबंधी रोग दूर होता है

श्वसन क्रिया में समस्या हो या आंखों की रोशनी कमजोर हो या स्किन समन्धित किसी तरह का कोई रोग या समस्या हो तो इस दिन खीर बनाकर चंद्रमा की रोशनी में जरूर रखे और उसका प्रसाद ग्रहण करें। दमा या स्वास संबंधी रोगों के लिए शरद पूर्णिमा की खीर बहुत फायदेमंद रहती है। इस कोरोना काल मे तो शरद पूर्णिमा का महत्व और भी बढ़ जाता है। कोरोना से प्रभावित हुए लोग अवश्य ही इस उपाय को करके आरोग्य का लाभ ले सकते है। स्किन एलर्जी और दिल के मरीजों के लिए भी इस दिन खीर का सेवन करना विशेष लाभ प्रदान करता है। रोगी विशेषकर यह ध्यान रखे कि रात में खीर खुले आसमान के नीचे रखे और रातभर रखने के बाद सुबह 4 बजे इसको ग्रहण करें तो विशेष लाभ होता है।

क्या है इसके पीछे वैज्ञानिक कारण

हमारी सनातन संस्कृति में हर मान्यताओं और परम्पराओं के पीछे विशेष धार्मिक महत्व के साथ वैज्ञानिक कारण भी जुड़ा होता है। शरद पूर्णिमा के दिन एक विशेष अध्ययन में यह भी पाया गया है कि औषधियों की स्पंदन क्षमता इस दिन बढ़ जाती है। रसाकर्षण की वजह से भीतर का पदार्थ सांद्र होने से रिक्तिकाएँ विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करती है। इसी कारण जब दूध और चावल से बनी खीर जिसमे लेक्टिक नाम का अम्ल और चावल में स्टार्च उपलब्ध होता है तो यह प्रक्रिया और भी तेजी से और आसानी से होने लगती है। ये तत्व चंद्रमा की किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करते है। इसी कारण हमारी मान्यताओं में ऋषि मुनियों ने भी इस शरद पूर्णिमा की रात्रि को चांद की किरणों के नीचे खीर रखने का विधान किया है यह पूर्णतया विज्ञान पर आधारित है।

शरद पूर्णिमा की पौराणिक मान्यताएं

 

भगवान कृष्ण की रासलीला

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है इस ही रात्रि को भगवान कृष्ण द्वारा मुरली वादन करते हुए गोपियों के संग रास रचाया था।

महालक्ष्मी का जन्म

शरद पूर्णिमा को माता लक्ष्मी का जन्म हुआ था कहा जाता है कि इस दिन समुद्र मंथन से माता लक्ष्मी प्रकट हुई थी। मान्यता है कि शरद पूर्णिमा के दिन महालक्ष्मी पृथ्वी लोक पर भ्रमण करने आती है। इसलिए इस रात्रि को जागरण की मान्यता है ताकि माता लक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त हो इसी कारण शरद पूर्णिमा को कर्जमुक्त पूर्णिमा भी कहा जाता है।

शरद पूर्णिमा पर ज्योतिष विधान

शरद पूर्णिमा की रात्रि से कार्तिक पूर्णिमा तक दीपदान करने का महत्व माना गया है। आकाशदीप प्रज्वलित करने से अकाल मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। ज्योतिष विधान में कहा गया है कि प्रत्येक कला मनुष्य के विशेष गुण को प्रतिनिधित्व करती है और शरद पूर्णिमा सभी 16 कलाओं से परिपूर्ण होती है। इसलिए इस दिन खीर का प्रसाद व्यक्ति में 16 कलाओं का आदर्श गुण स्थापित करता है। ज्योतिष विज्ञान में यह भी कहा गया है कि यदि किसी की कुंडली मे चंद्र ग्रह कमजोर हो तो वह इस दिन शरद पूर्णिमा की रोशनी का स्नान करें और खीर का प्रसाद ले तो चंद्र ग्रह मजबूत होता है।

शरद पूर्णिमा की कथा

शरद पूर्णिमा की पौराणिक कथा माता लक्ष्मी के जन्म, भगवान श्री कृष्ण द्वारा गोपियों संग महारास रचाने आदि कथाओं से जुड़ी है। इसकी कई और पौराणिक मान्यताएं भी है लेकिन इसके अलावा एक अन्य कथा और भी मिलती है। माना जाता है कि इस कथा के बाद पारंपरिक रूप से शरद पूर्णिमा का व्रत किया जाने लगा।

एक नगर में एक साहूकार रहता था जिसकी दो पुत्रियां थी। दोनों पुत्रियां पूर्णिमा को उपवास रखती थी लेकिन छोटी पुत्री हमेशा उस उपवास को अधूरा रख देती और उसे बीच में ही छोड़ देती । दूसरी पुत्री पूरी लगन और श्रद्धा के साथ पूरे व्रत को करती और उसका पूरा पालन करती। कुछ समय उपरांत दोनों पुत्रियों का विवाह हो गया और विवाह के पश्चात बड़ी पुत्री जो की पूरी आस्था से उपवास रखती थी बहुत ही सुंदर और स्वस्थ संतान को जन्म दिया। जबकि छोटी पुत्री की संतान जन्मी तो वह जीवित नहीं रह पाती थी। छोटी पुत्री काफी परेशान रहने लगी उसके साथ-साथ उसके पति भी परेशान रहने लगा। दोनों पति-पत्नी ने मिलकर ब्राह्मण को बुलाकर उसकी कुंडली दिखाई और जानना चाहा कि आखिर उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका कारण क्या है ?

विद्वान ज्योतिषी ने बताया कि इसने पूर्णिमा की अधूरे व्रत किए हैं इसी कारण इसलिए इसके साथ ऐसा अनर्थ हो रहा है। ब्राह्मण ने उसे व्रत की विधि बताई और आश्विन मास की पूर्णिमा यानी कि शरद पूर्णिमा को उपवास रखने को कहा। इस बार छोटी पुत्री ने विधिपूर्वक व्रत रखा लेकिन पूर्णिमा से पूर्व ही एक संतान को जन्म दिया जो भी कुछ दिनों तक जीवित रही। उसने अपने मृत शिशु को पीढ़े पर लेटा कर कपड़ा रख दिया और अपनी बड़ी बहन को बुलाने के लिए चली गई। बड़ी बहन पीढ़े पर बैठने वाली ही थी कि उसके कपड़े को छूते ही बच्चे के रोने की आवाज आने लगी । उसकी बड़ी बहन को बहुत आश्चर्य हुआ और कहा कि तू अपनी ही संतान को मारने का दोष मुझ पर लगाना चाहती थी। अगर इसे कुछ हो जाता तो ? तब छोटी बहन ने कहा यह तो पहले से मरा हुआ था । आपके प्रताप से ही यह जीवित हुआ है आपके लगातार पूर्णिमा व्रत करने की शक्ति के कारण ही मेरी संतान वापस जीवित हो गई है। और इसी कहानी के पश्चात पूर्णिमा व्रत की शक्ति का महत्व पूरे नगर में फैल गया और नगर में पूर्णिमा का व्रत विधि विधान से करने का ढिंढोरा पिटवा दिया गया। जिस प्रकार श्री हरि ने साहूकार की बड़ी बेटी की कामना पूर्ण कर सौभाग्य प्रदान किया वैसे ही हमपर भी कृपा करना।

 

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