धींगा गवरजा की कहानी
( मोम की गुडीया )
कैलाश पर्वत पर शिव – पार्वती बैठा था चैत्र माह शुरु होते ही ” गवरजा ” रा ” बालीकाओं कन्याओं ” द्वारा पूजण शुरु हो गया । पार्वती शिवजी सू बोली कि मैं भी म्हारे पिहर जावणो चाहू , आप हुकम करो तो ।
महादेव जी बोल्या , म्हारी भांग घोटण री व्यवस्था कूण करसी जने पार्वती व्यवस्था रे रूप में एक मोम री गुडिया बनाई और आपरी शक्ति सू उसमें जीव डाल दिया , बा चेतन हो गई पार्वती बे गुडिया ने बतायो कि मैं म्हारे पीहर सू वापिस नहीं आऊ जने तक पन्द्रह दिन , शिवजी ने भांग घोट र देनी है । आ बात शिवजी भी मान र पार्वती ने पीहर जाने री आज्ञा दे दी ।
पार्वती री बनाई मोम री गुडिया , सदैव शिवजी री भांग घोट – घोट समय पर देने लाग गई साथ – साथ में भोलो शंकर सू प्रेम – स्नेह राखण लाग गई । जद पार्वती पन्द्रह दिन बाद पीहर सूं वापिस आई तब बे गुडिया रो शंकर सू स्नेह देख गुस्से हुयगी और बेने उठार घर सू बाहर कचरे में फेंक दी । जद शिवजी समाधि सूं उठीया तो पार्वती सू पूछीयो कि बा गुडिया कठे गई तो पार्वती बोली कि म्हारी अनुपस्थति में थोने भांग घोट र देते देते बा थोसू प्रेम – स्नेह राखण लाग गी तो मैं बेने कचरे में फेक दी । शिवजी बोलीया मैं बेरी सेवा सू प्रसन्न हूँ , बेने कचरे में नहीं फेकनों थो जने पार्वती वापिस गुडिया ने लेणे गई । तब बा गुडिया आई नहीं बोली म्हारा अपमान हो गयो । तब शिव – पार्वती दोनू बोलिया कि थोने थारे मान सम्मान रो स्थान देसो के थां पार्वती री अनुपस्थति में भांग घोटी है , पन्द्रह दिन बाद थोरो ही पूजन गवरजा रे रूप में धीगोणे ही जबरदस्ती ( गवरजा रा पूजन ) हूंसी थोरी स्थापना भी उपर थापन होसी और पूजन री मान्यता , “गवर पूजन” रूप में होसी । उस दिन से पूजन धींगा गवर रूप में हुवन लागयो।
धींगा गवर कथा
कोकड़ – मोकड़ ( चतुर्थी से दशम् तक )
एक दिन कुम्हार की खाई में आग लग गई । कुम्हार की दोनों बेटियां जलकर मर गई और फिर दोनों ने राजा के घर जन्म लिया । जिस प्रकार तिल और जौ बढ़ता है , उसी प्रकार वे दोनों बहिनें भी बड़ी हो गई तथा राजा ने एक बेटी को देश राजा के यहां शादी की तथा दूसरी बेटी का भाट राजा के यहां ब्याही । देश राजा वाली बेटी के बचे होते और मर जाते और भाट राजा वाली के बच्चे जीवित रहते । इसी प्रकार कई दिन गुजरते गये तब देश राजा वाली रानी ने कहा कि देखो मेरे बच्चे तो मर जाते है , लेकिन मेरी बहिन के बच्चे जीवित रहते हैं । वह जलने लगी तथा उसने अपनी बहन में घात डालने की सोची और तब उसने अपने नौकरों को पहले गूंदगीरि के लड्डू बनाकर उसमें कीड़े – मकोड़े , बिच्छू इत्यादि डालकर उनसे कहा कि जाओ नौकरों इसे मेरी बहिन के यहां दे आओ तथा कहना कि तुम्हारी बहिन ने सम्भाल भेजी है । तब नौकर उसे भाट राजा के यहां दे आये तथा कहा कि इसे आपकी बहिन ने भेजी है तो उसने कहा कि अभी तो मैं अपनी धींगा गवर माता की पूजा कर रही हूँ आप इसे रख दो । नौकर उसे रखकर चले गये । तभी बाहर से बच्चे खेलते – खेलते आये और बोले कि मां – मां भूख लगी है तो उनकी मां ने कहा कि भूख – भूख क्या करते हो । मौसी ने सम्भाल भेजी है जाकर खा लो। बच्चे जाकर गूंदगीरी के लड्डू तोड़ते है तो उसमें से हीरे – पन्ने माणक मोती दड़ा – दडी आदि बन जाते हैं तो बच्चे कहते हैं कि मां – मां देखो यह क्या है तो उनकी मां कहती है धन वाली मौसी है मिसा – मिसा कर धन भेजा है ।
दूसरे दिन देश राजा वाली रानी नौकरों से कहती है कि जाओ और देख के आओ मेरी बहिन के बच्चे जिये की मरे तब नौकर बच्चों को देखकर रानी से कहते है कि आपके भानजा भानजी या तो इतने कंगले और मैले – कुचले तथा बदसूरत दिखते हैं या आज इतने सुन्दर दिखाई दे रहे है । अगले दिन रानी ने एक घड़े में कलन्दर नाग को मारकर उसमें दूध भरकर नौकरों को दिया औ कहा कि जाओ नौकरों इसे मेरी बहिन के यहां दे आओ । तब नौकर उस दूध के घड़े को लेकर भाट राजा के यहां गये तथा कहा कि रानीजी ने यह आपके लिए भेजा है तब भाट राजा की रानी कहा कि इसे अभी तो रख दो मैं अपनी धींगा गवर माता की पूजा कर रही हूँ । तभी बाहर से बच्चे आये और कहा कि मां – मां भूख लगी है तो मां ने कहा कि भूख – भूख क्या कर रहे हो , मौसी ने दूध भेजा है , जाकर पीलो । तब बच्चो ने घड़े को खोला तो देखते है कि उसमें नौ सौ का हार रखा है । तब बच्चे मां को कहते है कि मां – मां यह क्या है तो मां बोली धन वाली मौसी है । थोड़ा – थोड़ा करके धन भेजी है , कहकर उसने उस हार को कच्चे दूध से धोकर धींगा गवर माता के अर्पण करके पहन लिया । दूसरे दिन देश राजा वाली ने अपने नौकरों से कहा कि जाओ और देख के आओ कि मेरी बहिन के बचे जिये या मरें तब नौकर भाट राजा के यहां जाते हैं और देखते है कि बच्चे तो पहले से भी ज्यादा सुन्दर दिखाई दे रहे है तथा जो हार भाट राजा वाली रानी ने पहन रखा है वो तो रानीजी गले में सोवे तभी वे दौड़ते – दौड़ते महल में जाते हैं और कहते हैं कि रानीजी – रानीजी आपकी बहिन के गले ऐसा हार पहन रखा है जो आपके गले में सोवे । ऐसा सुनकर रानी तिलमिला उठती है और कोप भवन में जाकर सो जाती है तभी राजा आते हैं और कहते हैं कि रानीजी बात क्या है ? आपने आज थाल क्यों नहीं अरोगा तथा इस तरह कोप भवन में आप क्या कर रही है , तब रानी बोलती है , मैं तभी थाल अरोगूगी जब आप भी मेरी बहिन के जैसा हार बनवा कर देंगे । तब राजा कहते हैं कि आपकी बहिन ने तो उसे दिन में गड़ाया होगा लेकिन मैं आपके लिये देश – देश के सुनार बुलाकर गड़वाऊंगा । ऐसा कहकर राजा देश – देश के सुनार कर उस हार जैसा गढ़ने को कहते हैं । जैसे – जैसे सुनार उस हार का नाका जोड़ते है , वैसे वैसे वह खुलता जाता है तब सुनार कहते हैं कि राजाजी यह तो किसी मानवीयों के हाथ का नहीं है यह तो देवताओं के हाथ का गड़ा हुआ हार है ऐसा कहकर वे वहां से चले जाते हैं । जब हार वाली बात रानी जी के बहिन को पता चलती है तो वह महल में दौड़ी – दौड़ी आती है और कहती है कि बहिन तू जीजाजी को क्यों परेशान कर रही है , यह तो तेरा ही भेजा हुआ है । ले इसे तू वापस पहन ले , ऐसा कहकर जैसे ही वह हार रानी के गले में जाता है । वह फट से कलन्दर नाग बन जाती है । तभी रानीजी अपनी बहिन से कहती है कि ऐ ठाली भुली पहले तो मेरे बच्चों को खाया और अब मुझे खाने आयी है । मैं तेरा बच्चा – बच्चा घाणी में मिला दूंगी ।
इस प्रकार एक बार फिर देश राजा वाली रानी के मरा हुआ लड़का होता है । तब वह नौकरों से कहती हैं जाओ रे नौकरों मेरी बहिन को बधाई दे आओ कि आपके जिवणा – जागणा भानजा हुआ है । नौकर भाट राजा के यहां बधाई देने जाते हैं तब रानी कहती है कि अभी तो मैं अपनी धींगा गवर माता की पूजा कर रही हूँ बाद में आऊंगी । धींगा गवर की पूजा करके रानी दौड़ी – दौड़ी देश राजा के यहां जाती है तभी जंगल में बहनोई मिलता है वह उसे बधाई देती है तो वह राजा कहता है कि मरे हुए बेटे की काहे की बधाई लेकिन वह तो बात को सुनी – अनसुनी करके दौड़ती – दौड़ती महल में बहिन को बधाई देती है तो बहिन – बहिन से कहती है आ बहिन पीढ़े माथे पैठ , जैस ही बहिन उस पीढ़े पर बैठती है और उसके घाघरे का स्पर्श छूते ही बच्चा रोने लगता है तब बहिन – बहिन के पैर छूती है और कहती है कि ऐ बहिन तू ऐसा क्या जादू टोना जानती है कि तेरे छूते ही मेरा मरा हुआ बच्चा जी उठा तय भाट राजा वाली रानी कहती है कि मैं कोई जादू टोना नहीं जानती । मेरे तो एक ही ईष्ट है धींगा गवर माता का आज उसी के कारण तेरा बच्चा जीवित हो उठा तथा मेरे मान की भी उसने रक्षा की तब देश राजा बाली रानी कहती है कि ये कब और कैसे पूजी जाती है तो भाट राजा वाली रानी कहती है कि चैत उतरती तीज को बाली गवर उठती है और धींगा गवर पूजनी शुरू होती है तो वह बहिन को कहती है कि इस बार जब धींगा गवर माता को पूजे तो मैं भी तेरे साथ पूंजूगी । बारह महीनों के बाद जब बाली गवर उठती है तथा धींगा गवर शुरू होती है तब देश राजा वाली रानी गवर माता अपनी बहिन के यहां पूजने जाती है । इस तरह 15 दिन गवर पूजन के बाद भाट राजा वाली बहिन को कहती है कि कल हमारी गवर माता पूरी होगी । इसलिए तू कल सिर धो लेना तथा जीजाजी और भानजे सहित यहां आकर पूजा करना । यही भोजन कर लेना ऐसा सुनकर बहिन अपने महल आती है और सारी बात राजा को कहती है तब राजा कहता है कि कल अकेला मैं नहीं मेरी पूरी नगरी गाजे – बाजे के साथ आपकी बहन के यहां गवर पूजने जायेगी । तब अगले दिन सारी नगरी सहित जब भाट राजा के यहां जाने के लिये रवाना होता है , तभी रानी के मन में विचार आता है कि मैं देश की तो धणीयाणी हूं , सेर सोने भार मरू , काले डोरे लाज मरू आज देश राजा रे अठै ब्याही ( शादी ) हुई हूं । भाट राजा रे अठे गवर पूजने जाऊं ऐसा विचार आते ही कुंवर त्रास खाकर गिर जाता है और बेहोश हो जाता है तब राजा रानी से कहता है कि आपने ऐसा क्या सोचा कि मेरा कुंवर बेहोश हो गया तब रानी ने कहा कि मैंने और तो कुछ नहीं विचार किया लेकिन मेरे मन में यह जरूर विचार आया कि देश की धणीयाणी सेर सोने भार मरू , काले डोरे लाज मरू देश राजा रे व्याही भाट राजा रे अठे गवर पूजने जाऊं । तब राजा रानी से कहता है कि रानीजी मुसीबत में तो हिन्दू से मुस्लमान बन जाते हैं तथा मुस्लमान से हिन्दू फिर आप तो अपनी बहिन के यहां पजने ही तो जा रही हो । आप गुनहगारी का प्रसाद बोलो जैसे ही रानी ने गुनहगारी का प्रसाद बोला कुंवर उठ खड़ा हुआ तथा फिर धुमधाम से गवर माता की पूजा की और उजमन किया तथा सारी नगरी ने प्रसाद लिया ।
इस तरह धींगा गवर माता ने अपनी भक्त के विश्वास और मान की रक्षा की ।
बोलो धींगा गवर माता की जय । ।
कथा गणगौर
( ग्यारस से पूर्णाहुति तक )
एक साहूकार था । उसके चार बेटे और एक बेटी थी । उसके यहां एक साधु रोज भिक्षा मांगने आता । जब साहकार के बेटे की बहू भिक्षा डालती तो वह साधु कहता “ रातों चुड़लो , राती टीकी , रातो भेष लेकिन जब उसकी बेटी भिक्षा डालती तो वह उसे धोळी टीकी , धोळो चुड़लो , धोळो भेष ” कहता यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा तो एक दिन साहूकार की बेटी ने अपनी मां से साधु के आशीर्वाद देने वाली बात कही , तब साहूकार की पत्नी ने कहा कि कल बात उस साधू की अगले दिन जब उसकी बहु ने साधु को भिक्षा डाली तब उसने बहुत को आशीर्वाद के रूप में उसे रातो चुड़लो , राती टीकी और रातों भेष कहा और जब उसकी बेटी ने भिक्षा डाली तब उसने बेटी को आशीर्वाद के रूप में धोळी टीकी , धोळो चुड़लो और धोळो भेष कहा यह सब साहूकार की पत्नी ने देखा और साधु से कहा कि आप इस तरह से मेरी बेटी और बहु को अलग – अलग आशीर्वाद क्यों देते हो तो साधु ने कहा कि हम साधु महात्मा फकड़ आदमी है । ऐसे ही बोल दिया तो साहूकार की पत्नी ने कहा कि नहीं जो भी बात है , मुझे बताइये । बहुत कहने पर साधु ने उसे कहा कि तुम्हारें बेटी के चौथा फेरा होता ही विधवा होना लिखा है । तब साहूकार की पत्नी ने कहा कि इसका क्या उपाय है ? तब साधु ने कहा कि जो भी खुलते दरवाजे तुम्हें मिले उसे तुम पहले अपनी बेटी से फेरे दिलवा देना उसके बाद जो वर तुम्हारे खोजा गया है , उससे उसकी शादी करवा देना । साहूकार की पत्नी ने अगले दिन नौकरों से कहा कि जो भी तुम्हें खुलते दरवाजे मिले उसे ले आना । अगले दिन नौकर खुलते दरवाजे जाते है तो उन्हें फदक – फुदक करती सिला आती हुई दिखाई देती है तो नौकर कहते हैं कि नहीं बेचारी साहूकार की बेटी को सिला नीचे तो नहीं मारेंगे । वो ऐसा सोचकर वापस आ जाते हैं और कहते हैं कि उन्हें तो कुछ नहीं मिला । अब अगले दिन भी सिला आता है तो वह फिर वापस आ जाते हैं । इस तरह तीन – चार दिन तक यह क्रम चलता जाता है तो साहूकार की पत्नी कहती है , तुम्हें जो भी पत्थर कंकड़ मिल चाहे जो कुछ भी हो ले आना । बाई ने एकबार फेरा दिलवा कर वापिस उसे खोजे गये व फेरा दिलवाना है तो अगले दिन नौकर फिर जाते हैं तो वही फुदक – फुदक करती सिला आती है तो वे सोचते हैं कि साहूकार की बेटी की यही लिखा हुआ है तो हम क्या करें ? चौथे लोक . . . . . यह कहकर वे सिला को घर ले आते हैं तथा बाई का उस सिला से फेरे दिलवा देते हैं जैसे ही तीन फेरे पूरे होने के बाद चौथा फेरा खाते हैं तो उस सिला के दो टुकड़े हो जाते हैं तब साहूकार की पत्नी नौकरों से कहती है । इस सिला के टुकड़ों को फेंक दो । जैसे ही वह उस सिला को उठाते हैं तो साहूकार की बेटी हठ करके बैठ जाती है कि वह अब दूसरी शादी नहीं करेगी और जिससे उसने फेरे खाये है । वह उसी के साथ जंगल में झोंपड़ी बनाकर रहेगी । उसके मां – बाप उसे बहुत समझाते हैं लेकिन वह नहीं मानती । अन्त में वे हारकर जंगल में झोपड़ी बनाकर उसे रहने देते हैं । रोज उसकी भोजाई दोनों समय खाना पहुंचा देती है । इस तरह कई महीने बीतते गये एक दिन उसे जंगल में कुछ आवाज सुनने को मिलती है । वह बाहर आकर देखती है तो कुछ परियां वहां आयी हुई है तो वह उनके पास जाकर पूछती है कि तुम कौन हों ? और यहां क्या कर रही हो ? तब उन्होंने कहा कि हम इन्द्रलोक की परियां है । इन्द्रलोक में गवर पूजकर मृत्युलोक में पंथीवाड़ी माता को पूजने आये है तो वह पूछती है कि इससे क्या होता है तो परियां कहती हैं कि इससे अन्न , धन , लाज , लक्ष्मी इत्यादि आती मिलती है । तब वह कहती है कि मुझे और तो कुछ नहीं चाहिये लेकिन मेरे पति मुझे मिल जाए तो मैं भी गवर पूज लूं तब परियां उससे कहती है कि तुम्हारे साथ कैसे पूजेगी , तभी उनमें से एक परी बोली कि ऐसा करो कि तुम रोज अपने झोपड़ी में एक बिन्दी लगा लेना जब हम पीवाड़ी पूजने आयेंगे तब तुझे आवाज लगा देंगे । अगले दिन से साहूकार की बेटी ने अपने झोपड़ी में एक टीकी लगाकर पूजा की तभी बाहर से आवाज आई साहूकार की बेटी आ जा पंथीवाड़ी माता री पूजा कर ले । यही क्रम 45 दिनों तक चलता रहा 15वें दिन उन परियों ने उससे कहा कि कल तुम सिर धो लेना व्रत रखना , रोटा बनाना , फोगले का रायता यह कहकर वह वहां से चली गयी । रात को जब उसकी भोजाई रोटी लेकर आयी तो उसने कहा कि भाभीजी कल मेरे लिये रोटा बनाकर लाना , मेरे धीना गवर माता की पूजा और व्रत है ।
तब भोजाई ने कहा कि अब जंगल में बैठी ने रोटी जगह रोटा चाहिये । मैं कल रसोई बनाकर ही नहीं लाऊंगी मुंह बिचकाकर वह वहां से चली जाती है । अगले दिन वह हाथ – पैर मोड़ती है । वह बाहर जाती है तो वह देखती है कि वहां गेर गंभीर खेजड़े का पेड़ अपने आप उग गया है तो वहां से खेजड़े के पत्तों को तोड़कर पीसकर रोटे का आकार देकर उसके ऊपर कंकड़ पत्थर रखकर ढक देती है तभी आवाज आती है कि साहूकार की बेटी बाहर आकर पंथीवाड़ी पूज लो वह अन्दर टीकी लागकर बाहर पूजा करके वापिस अपने झोंपड़े में आ जाती है । वह जब ढक्कर हटाती है तो वह देखती है कि पत्तों का जो रोटा था वह परमल गेहूं का रोटा बन गया । उसके ऊपर फोगले का रायता और कंकड़ पत्थर बूरा – खाण्ड बन गयी तब उसने कहा कि धीना गवर माता ने इतना कुछ दिया है तो मुझे सुहाग भी देगी । तभी बाहर से तीन बार आवाज आती है कि साहूकार की बेटी बाहर दो नदियां बह रही है एक लाज – लोई की दूसरी केसर – कुंकु की । सिला के टुकड़ों को ले जाकर उसने उसे पहले लाज – लोई की नदी और फिर केसर कुंकु में नहलाया । तभी उसने देखा कि वह सिला के दो टुकड़े एक युवक के रूप में खड़ा है तो उसने उससे पूछा कि तुम कौन हो तो उसने कहा कि मैं तुम्हारा पति हूं तो वह उसे अपनी पति स्वीकार नहीं करती लेकिन जब वह उसे पत्थर की निशानी बताती है तो वह उसे स्वीकार कर लेती है । उधर झोपड़ी की जगह महल , नौकर – चाकर , खूब हीरा – मोती , माणक गवर माता की कृपा से आ जाते है । सुबह जब भाभी रोटी लेकर आती है तो झोपड़ी की जगह महल और किसी पर पुरुष के साथ अपनी ननद को देखती है तो दौड़ती – दौड़ती अपनी सास के पास जाती है और कहती है कि आप कहते हो कि मेरी बेटी सती है , लेकिन आपकी बेटी तो किसी अन्य पुरुष के साथ रह रही है तब मां – बाप , भाई – भाभी दौड़ते – दौड़ते आते हैं और कहते हैं कि यह तूने क्या किया ? तूने तो हमारे कूल को दाग लगा दिया तो साहूकार की बेटी ने कहा कि मैंने आपके कूल को दाग नहीं लगाया । मुझे तो यह सब धींगा गवर माता की कृपा से मिला है । वह मां कहती है कि पर पुरुष तो रातों रात ही आ जाता लेकिन यह झोपड़े की जगह महल , नौकर – चाकर यह सब तो नहीं आते । अगर आपको विश्वास नहीं है तो आप अपनी जंवाई के पत्थर की निशानी देख लीजिये । जब वे वह निशानी देखते हैं तो उन्हें विश्वास हो जाता है और वे फिर उन दोनों को खूब गाजे – बाजे से अपने घर ले जाते हैं ।
हे धींगा गवर माता जिस प्रकार साहूकार की बेटी पर तेरी कृपा बनी रही , उसी प्रकार हर इंसान पर तेरी कृपा बनी रहें ।
धींगा गवर माता की जय ।
पंथीवाड़ी माता की कहानी
एक साहूकार थो बिरे कोई भी नियम कोनी थो । बो खावतो – पिवतो और सो जातो । एक दिन साहूकार री पत्नी साहूकार सू बोली थे कुछ तो नियम करो और नहीं तो पंथीवाडी माता रे ही पाणी सींच आया करो और कह दिया करो कि देखीं – देखीं शहरी लोगो देखी ।
साहूकार रोज पाणी सींच आवतो और कह देतो कि देखीं – देखीं शहरी लोगों देखी ।
चार चोर चोरी कर आया और आप – आपरी हिस्सा पाँती कर रहया था बे समय साहूकार पंथीवाडी माता रे पाणी सींच आयो और चोरो ने देख बोल्यों देखीं – देखीं शहरी लोगो देखी । चोर बोल्या पांचवी पाँती थे लेलो । साहुकार चोरों की सुणी कोयनी और दौड़तो – दौड़तो घर आयग्यों साहूकार आपरी बहू ने केयो –
तू केयो कुछ तो नियम करो म्हारे लारे तो बाढ़ आई है । साहूकार री बहू केयो थे घर में बैठो मै बात करू इत्ते में चार चोर भी आयग्या ।साहूकारनी बोली क्या बात है चोर बोल्या मैं चोरी कर सामान लायो हो और साहूकार बोल्यो की ‘देखीं – देखीं शहरी लोगो देखी’ मै बोल्या पाँचवीं पाँती थोरी । साहूकारनी बोली पाँचवी पाँती लेवा कोयनी पूरी लेसां नहीं तो राज में चूगळी कर देस्यू। चोर बोल्या कोई बात कोनी पूरी लेलो । मैं तो फर चोरी कर लेसो। साहूकार केयो इत्ते धन रो क्या करसो । चोर बोल्या मैं कुंवारी कन्या ने परणासो, पंथीवाडी माता रो अजुणो करासो, धन री कमी वाळो ने धन देसो ।
हे पंथीवाडी माता ज्यों साहूकार ने दियो तूं सगळो ने ही दिये ।
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