बीकानेर लगभग सवा सौ वर्षों से निकल रही चांदमल ढढ्ढा की गणगौर के पीछे भी पुत्र की मनोकामना की चाह प्रमुख रही है। कहा जाता है की देशनोक से बीकानेर आकर बसे सेठ उदयमल ढढ्ढा के कोई पुत्र नहीं था। राजपरिवार में अच्छी प्रतिष्ठा के कारण उनको शाही गणगौर देखनें का निमंत्रण मिला। तब उदयमल की पत्नी ने प्रण लिया की पुत्र होने के बाद ही गणगौर दर्शन करूंगी।
एक वर्ष गणगौर की विशवास एवं आस्था के साथ साधना करने से उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। जिसका नाम चांदमल रखा गया। तभी से प्रतिवर्ष भाईया के साथ गणगौर निकालने की परम्परा शुरू हुई। सेठ चांदमल जी के गणगौर का भाईया भी उतना ही कीमती है जितनी की गणगौर।
सेठ उदयमल राजा के धर्मभाई थे। इसलिए राजा ने उनकी गणगौर की सवारी नहीं निकाल कर चैत्र शुक्ला तृतीया एवं चतुर्थी को मेला प्रारम्भ करने की इजाजत दी। इस गणगौर की सवारी की एक बड़ी विशेषता भी है की इसके पांव है। जबकि बाकि सब गणगौर के पांव नहीं होते।
भारी -भारी कपड़ों और आभूषणों से सजी यह गणगौर अद्वितीय लगती है। यह गणगौर ढढ्ढ़ो के पुस्तैनी घर के आगे पाटे पर विराजमान रहती है। ढढ्ढ़ो के चौक बीकानेर में यह मेला चेत्र शुक्ल की तीज व चौथ को भरता है।