अपने भ्राता रामचंद्रजी का आदेश मानकर लक्ष्मणजी सीताजी के महल में आये और उनसे बोले – देवि आपने श्रीराम से मुनियों के आश्रम देखने की इच्छा प्रकट की थी सो आप इस रथ पर सवार हो जायं। मैं आपको ले चलता हूँ। तब सीताजी रथ पर सवार लक्ष्मणजी के साथ गंगातट पर पहुँचीं और फिर नाव से उसपार पहुंचीं। गंगा पार करने के पश्चात लक्ष्मणजी रोने लगे और माता सीता से हाथ जोड़ कर बोले – माते नगर में आपके विषय में भयंकर अपवाद उत्पन्न हो गया है। आप मेरे सामने निर्दोष सिद्ध हो चुकी हैं तो भी लोकापवाद से डरकर श्रीराम ने आपको त्याग दिया है और महाराज की आज्ञा से मैं आपको यहाँ बन में छोड़ने आया हूँ। लक्ष्मणजी के बचन सुनकर सीताजी मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। चेत आने पर बोलीं – भैया लक्ष्मण तुम वैसा ही करो जैसा महाराज का आदेश है। स्वामी ने अपयश से डरकर मुझे त्यागा है। उसे दूर करना मेरा भी कर्तव्य है। स्त्री के लिये तो पति ही सब कुछ है। मैं स्वयं अपने जीवन को गंगाजी में बिसर्जित कर देती परंतु ऐसा करने से मेरे पतिदेव का राजवंश जो मेरे गर्भ में है वह नष्ट हो जायगा। तब लक्ष्मणजी गंगा पार आकर दुख से अचेत हो गये और सीताजी रोती हुई धरती पर लोट ने लगीं। – बाल्मिकी रामायण।
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