जाने श्राद्ध में क्या करना है शुभ और क्या है अशुभ

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श्राद्धमें पितरोंकी तृप्ति ब्राह्मणोंके द्वारा ही होती है।

-स्कन्दपुराण

श्राद्धकालमें आये हुए अतिथिका अवश्य सत्कार करे। उस समय अतिथि का सत्कार न करनेसे वह श्राद्ध कर्म के सम्पूर्ण फलको नष्ट कर देता है।

– वराहपुराण

जहाँ रजस्वला स्त्री, चाण्डाल और सुअर श्राद्धके अन्नपर दृष्टि डाल देते हैं, वह अन्न प्रेत ही ग्रहण करते हैं।

-स्कन्दपुराण

श्राद्धमें पहले अग्निको ही भाग अर्पित किया जाता है। अग्निमें हवन करनेके बाद जो पितरोंके निमित्त पिण्डदान किया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते।

– महाभारत, अनु. ९२।११-१२

जो अज्ञानी मनुष्य अपने घर श्राद्ध करके फिर दुसरे घर भोजन करता है, वह पाप का भागी होता है और उसे श्राद्धका फल नहीं मिलता।

– स्कन्दपुराण

एक हाथसे लाया गया जो अन्न (अन्नपात्र) ब्राह्मणोंके आगे परोसा जाता है, उस अन्नको राक्षस छीन लेते हैं।

– मनुस्मृति ३।२२५

वस्त्रके बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन और तपस्या नहीं होती । अतः श्राद्धकालमें वस्त्रका दान विशेषरुपसे करना चाहिये।

-ब्रह्मपुराण

श्राद्ध और हवनके समय तो एक हाथसे पिण्ड एवं आहुति दे, पर तर्पणमें दोनों हाथोंसे जल देना चाहिये।

– पद्मपुराण,नारदपुराण,मत्स्यपुराण,ब्रह्मपुराण,लघुयमस्मृति

श्राद्धके पिण्डोंको गौ, ब्राह्मण या बकरीको खिला दे अथवा अग्नि या पानीमें छोड दे ।

– मनुस्मृति ३।२६०, महाभारत,अनु. १४५

जो सफेद तिलोंसे पितरोंका तर्पण करता है, उसका किया हुआ तर्पण व्यर्थ होता है ।

– पद्मपुराण

रात्रिमें श्राद्ध नहीं करना चाहिये, उसे राक्षसी कहा गया है। दोनों सन्ध्याओंमें तथा पूर्वाह्णकालमें भी श्राद्ध नहीं करना चाहिये ।

– मनुस्मृति ३।२८०

श्राद्धमें तीन वस्तुएँ अत्यन्त पवित्र हैं – दुहितापुत्र, कुतपकाल (जब सूर्यका ताप घटने लगता है, उस समय का नाम है ‘कुतप’) तथा तिल ।

– महाभारत, आदि. ९३,अनु. १४५, सकन्दपुराण, मनुस्मृति

श्राद्ध कर्म

अगर पंडित से श्राद्ध नहीं करा पाते तो सूर्य नारायण के आगे अपने बगल खुले करके (दोनों हाथ ऊपर करके) बोलें :
“हे सूर्य नारायण ! मेरे पिता (नाम), अमुक (नाम) का बेटा, अमुक जाति (नाम), (अगर जाति, कुल, गोत्र नहीं याद तो ब्रह्म गोत्र बोल दे) को आप संतुष्ट/सुखी रखें । इस निमित मैं आपको अर्घ्य व भोजन करता हूँ ।” ऐसा करके आप सूर्य भगवान को अर्घ्य दें और भोग लगायें ।

 

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